सीमा आज़ाद ,जनता और सच्चाई

            हिंदुस्तान ,लखनऊ,29 अगस्त 2002,पृष्ठ-08

“हमे पकड़ने के बाद तत्कालीन प्रदेश सरकार ने कथित माओवादी खात्मे के नाम पर आठ हजार करोड़ 

का पेकेज लिया “—सीमा आज़ाद 

“एक दो नहीं हमे लगता है कि सारे कानून काले हैं”—विश्वविजय (मानवाधिकार कार्यकर्ता और सीमा आज़ाद के पति)

“अनेक राज्यों मे आंदोलनों को कुचलने के लिए सेना का इस्तेमाल किया जाता है। सेना के  साथ  अगर हैं तो देश भक्त हैं … अगर नहीं हैं तो राष्ट्र द्रोही । “—आलोचक वीरेंद्र यादव 

एक साक्षात्कार मे सीमा आज़ाद ने यह भी बताया -सरकारें जल-जंगल-जमीन हड़पने के लिए कानून बना रही हैं ,जिसका लोग कडा विरोध कर रहे हैं। उनका साथ हमारे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता दे रहे हैं । ऐसे मे राज्य के खिलाफ माहौल बन रहा है। उस पर काउंटर करने के लिए राज्य आक्रामक हो रहा है और लोकतन्त्र की धज्जियां उड़ा रहा है। उन्होने यह भी बताया कि पहले राज्य आम लोगों के लिए कार्य करता था । अब उसकी पहली प्राथमिकता मे प्राकृतिक संसाधनों की लूट करने वाले कारपोरेट घराने हैं। इसमे रोड़ा बनने वालों को दबाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं।

भुक्तभोगी जुझारू कार्यकर्ताओं एवं आलोचक-विश्लेषक विद्वान के उपरोक्त कथनों के संबंध मे यदि ऐतिहासिक विवेचन किया जाये तो हम पाते हैं कि 65 वर्ष पूर्व जब भारत वर्ष स्वाधीन हुआ था तो यहाँ सुई भी नहीं बनती थी और आज हमारे यहाँ वायु यान ही नही,अस्त्र-शस्त्र ही नहीं राकेट,मिसाईल,परमाणु बम तक बन रहे हैं। आज़ादी के बाद कल-कारखानों का विकास हुआ है। किन्तु जनता की सुख-सुविधाएं पहले से भी ज़्यादा घटी हैं।‘आसमान से टपका -खजूर मे अटका’ की तर्ज पर सम्पूर्ण विकास का लाभ कुछ चुनिन्दा लोगों तक ही सिमट कर रह गया है और शेष जनता वैसे ही त्राही-माम,त्राही-माम करने को विवश है। हमारी शासन व्यवस्था राजनीतिक रूप से लोकतान्त्रिक है परंतु जब शोषित -दमित जनता एक जुट होकर अपने अधिकारों की रक्षा की बात करती है तब चुनी हुई सरकारें ही भ्रष्ट-व्यापारियों,उद्योगपतियों,देशी-विदेशी निवेशकों,कारपोरेट घरानों के इशारे पर आम जनता का दमन करने हेतु पुलिस और सेना का सहारा लेती हैं। एक बहाना गढ़ लिया गया है माओवादी आतंकवाद का। सच्चाई यह है कि CIA अमेरिकी कारपोरेट हितों की रक्षा के लिए कुछ प्रशिक्षित आतंकवादियों को धन व शस्त्र मुहैया कराकर पुलिस व सेना पर आघात कराती है जिससे सरकारों को उनके सफाये के नाम पर गरीब असहाय जनता का दमन करने हेतु पुलिस व सेना का प्रयोग करना जायज ठहराया जा सके।

शोषक कारपोरेट घरानों का विरोध करने के कारण ही सीमा आज़ाद और उनके पति को ढाई वर्ष तक जेल मे बंद रखा गया और उनको आजीवन कैद की सजा सुना दी गई परंतु अलाहाबाद हाई कोर्ट ने इसी माह की छह तारीख को निर्णय दिया कि विपरीत विचार रखने के कारण किसी को जेल मे नहीं रखा जा सकता और दोनों को जमानत पर रिहा कर दिया। ऐसे लगभग दस हजार कार्यकर्ता पूरे देश मे जेलों मे बंद हैं। क़ानूनों का खुला दुरुपयोग किया गया है और सभी मुकदमा लड़ते हुये हाई कोर्ट तक नहीं पहुँच पाते उनकी जिंदगी जेलों मे सड़ जाती है। बाकी लोग भय से चुप रह जाते हैं।

जल-जंगल-ज़मीनों की लूट मे एक दूसरा पहलू पर्यावरण का भी है उसकी भी अनदेखी की जा रही है। प्रकृति की निर्मम लूट का दुष्परिणाम मौसम पर भी पड़ता है जिससे फसलों को क्षति पहुँचती है। खाद्यान का आभाव हो जाता है और मुनाफाखोर व्यापारी जनता का और अधिक शोषण करते हैं। मुश्किल और मुसीबत यह है कि जनता को यह सब समझाये कौन?

जो लोग और पार्टियां जन-हितैषी हैं उनको एक भूत सवार है कि वे ‘नास्तिक’ हैं और ‘धर्म’ तथा ‘भगवान’ को नहीं मानते। दूसरी ओर सांप्रदायिक लोग (सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद सहोदरी हैं) धर्म की व्याख्या व्यापारियों -लुटेरों के हित मे प्रस्तुत करके उसी गरीब-शोषित जनता को उनके विरुद्ध कर देते हैं जो उनके हकों की लड़ाई लड़ रहे होते हैं। इसलिए भी माओवाद के नाम का सहारा लिया जाता है। 

फिर क्या हो?

होना यह चाहिए कि जनवादी शक्तियों को एकजुट होकर आम जनता को यह समझाना चाहिए कि ‘धर्म’ वह नही है जो ढ़ोंगी पोंगा-पंथी बता रहे हैं। बल्कि धर्म वह है जो शरीर को धारण करने हेतु आवश्यक है,जैसे-‘सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।

भगवान कभी भी नस और नाड़ी के बंधन मे नहीं बधता है इसलिए वह भगवान या उसका अवतार नही है जिसे  पोंगापंथी लुटेरे बताते हैं। भ (भूमि-प्रथिवी )+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल) का समुच्य ही भगवान है और चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं किसी ने बनाए नहीं हैं इसलिए ये ही खुदा हैं। इंका काम प्राणी मात्र का सृजन,पालन  और संहार है =G(जेनरेट)+O (आपरेट)+D(डेसट्राय)  अतः ये ही GOD हैं।

समस्या की जड़ यहीं है कि ‘मार्क्स भगवान’ कह गए हैं कि man has created the GOD for his mental security only तब उनके अंध-भक्त मार्क्सवादी-साम्यवादी कैसे जनता को ‘धर्म’ और ‘भगवान’ की वास्तविकता समझाएँ?

जनता लुटती-पिटती रहेगी ,सीमा आज़ाद उनके पति विश्वविजय और हजारों निरीह कार्यकर्ता बेकसूर जेलों मे बंद किए जाते रहेंगे। सांप्रदायिक तत्व धर्म के नाम पर धोखा परोस कर व्यापारियों,उद्योगपतियों और कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाते रहेंगे। काश जनवादी-साम्यवादी-बामपंथी समय की पुकार को समझ सकें?

श्री कृष्ण -साम्यवाद और वेद विज्ञान

कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ ,ज़िला मंत्री-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी,लखनऊ ने काउंसिल की एक बैठक मे श्री कृष्ण के बचपन की उस घटना का उल्लेख करते हुये कार्यकर्ताओं का आह्वान किया था कि हमे उनसे प्रेरणा लेकर संघर्ष पथ  पर बढ़ना चाहिए। कामरेड ख़ालिक़ ने स्पष्ट किया कि उस समय गावों का शहरों द्वारा शोषण चरम पर था और बालक श्री कृष्ण को यह गवारा न हुआ अतः उन्होने शहरों की ओर ‘मक्खन’ ले जाती ग्वालनों की मटकियाँ फोड़ने का कार्यक्रम अपने बाल साथियों के साथ चलाया था।

योगीराज श्री कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन शोषण-उत्पीड़न और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करते हुये ही बीता किन्तु ढ़ोंगी-पोंगापंथी-पुरोहितवाद ने आज श्री कृष्ण के संघर्ष को ‘विस्मृत’ करने हेतु उनको अवतार घोषित करके उनकी पूजा शुरू करा दी। कितनी बड़ी विडम्बना है कि ‘कर्म’ पर ज़ोर देने वाले श्री कृष्ण के ‘कर्मवाद’ को भोथरा करने के लिए उनको अलौकिक बता कर उनकी शिक्षाओं को भुला दिया गया और यह सब किया गया है शासकों के शोषण-उत्पीड़न को मजबूत करने हेतु। अनपढ़ तो अनपढ़ ,पढे-लिखे मूर्ख ज़्यादा ढोंग-पाखंड मे उलझे हुये हैं।

तथा कथित प्रगतिशील साम्यवादी बुद्धिजीवी जिंनका नेतृत्व विदेश मे बैठे पंडित अरुण प्रकाश मिश्रा और देश मे उनके बड़े भाई पंडित ईश मिश्रा जी  करते हैं सांप्रदायिक तत्वों द्वारा निरूपित सिद्धांतों को धर्म मान कर धर्म को त्याज्य बताते हैं। जबकि धर्म=जो शरीर को धारण करने के लिए आवश्यक है वही ‘धर्म’ है;जैसे-सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । अब यदि ढ़ोंगी प्रगतिशीलों की बात को सही मान कर धर्म का विरोध किया जाये तो हम लोगों से इन सद्गुणों को न अपनाने की बात करते हैं और यही कारण है कि सोवियत रूस मे साम्यवाद का पतन हो गया(सोवियत भ्रष्ट नेता ही आज वहाँ पूंजीपति-उद्योगपति हैं जो धन जनता और कार्यकर्ता का शोषण करके जमा किया गया था उसी के बल पर) एवं चीन मे जो है वह वस्तुतः पूंजीवाद ही है।दूसरी ओर थोड़े से  पोंगापंथी केवल ‘गीता’ को ही महत्व देते हैं उनके लिए भी ‘वेदों’ का कोई महत्व नहीं है। ‘पदम्श्री ‘डॉ कपिलदेव द्विवेदी जी कहते हैं कि,’भगवद  गीता’ का मूल आधार है-‘निष्काम कर्म योग’
“कर्मण्ये वाधिकारस्ते ………………….. कर्मणि। । ” (गीता-2-47)

इस श्लोक का आधार है यजुर्वेद का यह मंत्र-
“कुर्वन्नवेह कर्मा………………. न कर्म लिपयाते नरो” (यजु.40-2 )

इसी प्रकार सम्पूर्ण बाईबिल का मूल मंत्र है ‘प्रेम भाव और मैत्री’ जो यजुर्वेद के इस मंत्र पर आधारित है-
“मित्रस्य मा………………….. भूतानि समीक्षे।  ……. समीक्षा महे । । ” (यजु .36-18)

एवं कुरान का मूल मंत्र है-एकेश्वरवाद-अल्लाह की एकता ,उसके गुण धर्मा सर्वज्ञ सर्व शक्तिमान,कर्त्ता-धर्त्तासंहर्त्ता,दयालु आदि(कुरान7-165,12-39,13-33,57-1-6,112-1-4,2-29,2-96,87-1-5,44-6-8,48-14,1-2,2-143 आदि )। 

इन सबके आधार मंत्र हैं-

1-“इंद्रम मित्रम……. मातरिश्चा नामाहू : । । ” (ऋग-1-164-46)
2-“स एष एक एकवृद एक एव “। । (अथर्व 13-4-12)
3-“न द्वितीयों न तृतीयच्श्तुर्थी नाप्युच्येत। । ” (अथर्व 13-5-16)

पहले के विदेशी शासकों ने हमारे महान नेताओं -राम,कृष्ण आदि को बदनाम करने हेतु तमाम मनगढ़ंत कहानियाँ यहीं के चाटुकार विद्वानों को सत्ता-सुख देकर लिखवाई जो ‘पुराणों’ के रूप मे आज तक पूजी जा रही हैं। बाद के अंग्रेज़ शासकों ने तो हमारे इतिहास को ही तोड़-मरोड़ दिया। यूरोपीय इतिहासकारों ने लिख दिया आर्य एक जाति-नस्ल थी जो मध्य यूरोप से भारत एक आक्रांता के रूप मे आई थी जिसने यहाँ के मूल निवासियों को गुलाम बनाया। इसी झूठ को ब्रह्म वाक्य मानते हुये ‘मूल निवासियों भारत को आज़ाद करो’ आंदोलन चला कर भारत को छिन्न-भिन्न करने का कुत्सित प्रयास चल रहा है। अंग्रेजों ने लिख दिया कि ‘वेद गड़रियों के गीत हैं’ और साम्राज्यवाद विरोधी होने का दंभ भरने वाले पंडित अरुण प्रकाश मिश्रा सरीखे उद्भट विद्वान उसी आधार पर वेदों को अवैज्ञानिक बताते नहीं थकते हैं।

जर्मनी के मैक्स मूलर साहब भारत आए और यहाँ 30 वर्षों तक रह कर ‘संस्कृत’ सीख कर वेदों को समझा एवं मूल पांडु लिपियाँ एकत्र कर चलते बने। जर्मन मे उनके अनुवाद किए गए फिर अङ्ग्रेज़ी आदि दूसरी भाषाओं मे जर्मन भाषा से अनुवाद हुये। हिटलर ने खुद को आर्य घोषित करते हुये दूसरों के प्रति नफरत फैलाई जो कि आर्यत्व के विपरीत है। ‘आर्य’=श्रेष्ठ अर्थात वे स्त्री पुरुष जिनके आचरण और कार्य श्रेष्ठ हैं ‘आर्य’ है इसके विपरीत लोग अनार्य हैं। न यह कोई जाति थी न है।

‘आर्य’ सार्वभौम शब्द है और यह किसी देश-काल की सीमा मे बंधा हुआ नहीं है। आर्यत्व का मूल ‘समष्टिवाद’ अर्थात ‘साम्यवाद’ है। प्रकृति में संतुलन को बनाए रखने हेतु हमारे यहाँ यज्ञ -हवन किये जाते थे। अग्नि में डाले गए पदार्थ परमाणुओं में विभक्त हो कर वायु द्वारा प्रकृति में आनुपातिक रूप से संतुलन बनाए रखते थे.‘भ'(भूमि)ग (गगन)व (वायु) ।(अनल-अग्नि)न (नीर-जल)को अपना समानुपातिक भाग प्राप्त होता रहता था.Generator,Operator ,Destroyer भी ये तत्व होने के कारण यही GOD है और किसी के द्वारा न बनाए जाने तथा खुद ही बने होने के कारण यही ‘खुदा’भी है।  अब भगवान् का अर्थ मनुष्य की रचना -मूर्ती,चित्र आदि से पोंगा-पंथियों के स्वार्थ में कर दिया गया है और प्राकृतिक उपादानों को उपेक्षित छोड़ दिया गया है जिसका परिणाम है-सुनामी,अति-वृष्टि,अनावृष्टि,अकाल-सूखा,बाढ़ ,भू-स्खलन,परस्पर संघर्ष की भावना आदि-आदि.

एक विद्वान की इस प्रार्थना पर थोडा गौर करें –
ईश हमें देते हैं सब कुछ ,हम भी तो कुछ देना सीखें.
जो कुछ हमें मिला है प्रभु से,वितरण उसका करना सीखें..१ ..

हवा प्रकाश हमें मिलता है,मेघों से मिलता है पानी.
यदि बदले में कुछ नहीं देते,इसे कहेंगे बेईमानी..
इसी लिए दुःख भोग रहे हैं,दुःख को दूर भगाना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..२ ..

तपती धरती पर पथिकों को,पेड़ सदा देता है छाया.
अपना फल भी स्वंय न खाकर,जीवन उसने सफल बनाया..
सेवा पहले प्रभु को देकर,बाकी स्वंय बरतना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..३..

मानव जीवन दुर्लभ है हम,इसको मल से रहित बनायें.
खिले फूल खुशबू देते हैं,वैसे ही हम भी बन जाएँ..
जप-तप और सेवा से जीवन,प्रभु को अर्पित करना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..४..

असत नहीं यह प्रभुमय दुनिया,और नहीं है यह दुखदाई.
दिल-दिमाग को सही दिशा दें,तो बन सकती है सुखदाई ..
‘जन’को प्रभु देते हैं सब कुछ,लेकिन ‘जन’तो बनना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..५..
शीशे की तरह चमकता हुआ साफ़ है कि वैदिक संस्कृति हमें जन  पर आधारित अर्थात  समष्टिवादी बना रही है जबकि आज हमारे यहाँ व्यष्टिवाद हावी है जो पश्चिम के साम्राज्यवाद की  देन है। दलालों के माध्यम से मूर्ती पूजा करना कहीं से भी समष्टिवाद को सार्थक नहीं करता है,जबकि वैदिक हवन सामूहिक जन-कल्याण की भावना पर आधारित है। IBN 7 के पत्रकार हवन का विरोध पोंगापंथ को सबल बनाने हेतु करते है और दूसरे चेनल वाले भी। साम्राज्यवादी -विदेशी तो खुद को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए वेदों का विरोध करते ही हैं एवं उनके निष्कर्षों का लाभ लेकर उसे अपना आविष्कार बताते हैं।
ऋग्वेद के मंडल ५/सूक्त ५१ /मन्त्र १३ को देखें-
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये.
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्व्हंससः ..
(जनता की कल्याण -कामना से यह यज्ञ  रचाया.
विश्वदेव के चरणों में अपना सर्वस्व चढ़ाया..)
जो लोग (अरुण प्रकाश मिश्रा -ईश मिश्रा जी और उनके चेले सरीखे )धर्म की वास्तविक व्याख्या को न समझ कर गलत  उपासना-पद्धतियों को ही धर्म मान कर चलते हैं वे अपनी इसी नासमझ के कारण ही  धर्म की आलोचना करते और खुद को प्रगतिशील समझते हैं जबकि वस्तुतः वे खुद भी उतने ही अन्धविश्वासी हुए जितने कि पोंगा-पंथी अधार्मिक होते हैं। 
ऋग्वेद के मंडल ७/सूक्त ३५/मन्त्र १ में कहा गया है-
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या डे
शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयो :शन्न इन्द्रा पूष्णा वाजसात..
(सूर्य,चन्द्र,विद्युत्,जल सारे सुख सौभाग्य बढावें.
रोग-शोक-भय-त्रास हमारे पास कदापि न आवें..)
वेदों में किसी व्यक्ति,जाति,क्षेत्र,सम्प्रदाय,देश-विशेष की बात नहीं कही गयी है.वेद सम्पूर्ण मानव -सृष्टि की रक्षा की बात करते हैं.इन्हीं तत्वों को जब मैक्समूलर साहब जर्मन ले गए तो वहां के विचारकों ने अपनी -अपनी पसंद के क्षेत्रों में उनसे ग्रहण सामग्री के आधार पर नई -नई खोजें प्रस्तुत कीं हैं.जैसे डा.हेनीमेन ने ‘होम्योपैथी’,डा.एस.एच.शुस्लर ने ‘बायोकेमिक’  भौतिकी के वैज्ञानिकों ने ‘परमाणु बम’एवं महर्षि कार्ल मार्क्स ने ‘वैज्ञानिक समाजवाद’या ‘साम्यवाद’की खोज की। 

दुर्भाग्य से महर्षि कार्ल मार्क्स ने भी अन्य विचारकों की भाँती ही गलत उपासना-पद्धतियों (ईसाइयत,इस्लाम और हिन्दू ) को ही धर्म मानते हुए धर्म की कड़ी आलोचना की है ,उन्होंने कहा है-“मैंन  हैज क्रियेटेड द गाड फार हिज मेंटल सिक्योरिटी ओनली”.आज भी उनके अनुयाई एक अन्धविश्वासी की भांति इसे ब्रह्म-वाक्य मान कर यथावत चल रहे हैं.जबकि आवश्यकता है उनके कथन को गलत अधर्म के लिए कहा गया मानने की.’धर्म’तो वह है जो ‘धारण’करता है ,उसे कैसे छोड़ कर जीवित रहा जा सकता है.कोई भी वैज्ञानिक या दूसरा विद्वान यह दावा नहीं कर सकता कि वह-भूमि,गगन,वायु,अनल और नीर (भगवान्,GODया खुदा जो ये पाँच-तत्व ही हैं )के बिना जीवित रह सकता है.हाँ ढोंग और पाखण्ड तथा पोंगा-पंथ का प्रबल विरोध करने की आवश्यकता मानव-मात्र के अस्तित्व की रक्षा हेतु जबरदस्त रूप से है। 

साम्राज्यवाद को मजबूत करने मे ‘साम्यवाद ‘का कितना योगदान?

“MAN HAS CREATED THE GOD FOR HIS MENTAL SECURITY ONLY”—
                                                                                                               KARL  MARX

अर्थात कार्ल मार्क्स का कथन है कि,”मनुष्य ने अपनी दिमागी सुरक्षा के लिए भगवान की उत्पत्ति  की है”।

महर्षि कार्ल मार्क्स ने  किस संदर्भ और परिस्थितियों मे यह लिखा इसे समझे बगैर एयर कंडीशंड कमरों मे बैठ कर उदभट्ट विद्वान ‘धर्म’ की चर्चा को भटकाने वाला तथ्य कहते हैं और उनमे से कुछ यह भी घोषणा करते हैं कि,;हिन्दू’,’इस्लाम’,’ईसाई’आदि ही धर्म हैं एवं धर्म की अन्य कोई परिभाषा मान्य नहीं है। इसका सीधा-सादा अर्थ है कि ‘तर्क’और ज्ञान के आभाव मे ये विद्वान ढोंग-पाखंड-आडंबर जिसे साम्राज्यवादी धर्म बताते हैं उसी को धर्म स्वीकारते हैं और तभी धर्म पर प्रहार करके जनता से कटे रहते हैं। हालांकि कुछ प्रगतिशील और जागरूक साम्यवादी नेता तो धर्म को सही परिप्रेक्ष्य मे समझ कर जनता से संवाद करने लगे हैं और वे लोकप्रिय भी हैं।मुस्लिम वर्ग के एक कामरेड तो श्री कृष्ण को ‘साम्यवाद ‘ का प्रयोग करने वाला बताते हैं और उनका जनता पर अनुकूल प्रभाव भी पड़ता है।  किन्तु बुद्धिजीवी विद्वान अभी भी 18वीं सदी की सोच से साम्यवाद लाने के नाम पर नित्य ही साम्राज्यवाद के हाथ मजबूत कर रहे हैं  फेसबुक पर अपने थोथे  बयानों से।और तो और मजदूर नेता एवं विद्वान कामरेड ने तो तब हद ही कर दी जब RSS की वकालत वाला एक लेख ही शेयर कर डाला। देखें-
Shriram Tiwari shared a link.

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साम्यवाद की विचारधारा क्या भारतीय संस्कृति के अनुकूल है? या साम्यवाद का भारतीय संस्कृति, धर्म और इतिहास से भी कोई संबंध है? यदि इन जैसे प्रश्नों के उत्तर खोजे जाऐं तो ज्ञात होता है कि वास्तविक साम्यवाद भारतीय संस्कृति में ही है। संसार का कम्युनिस्ट समाज भारतीय साम्यवाद को समझ नहीं पाया है और ना ही स…

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    • Vijai RajBali Mathur लेख मे मुद्दो की बात उठाते-उठाते अंततः RSS का समर्थन करके गुमराह किया गया है। 1857 की क्रांति मे भाग ले चुके महर्षि दयानन्द को अंग्रेज़-REVOLUTIONARY SAINT कहते थे और उनके संगठन को क्षति पहुँचने के उद्देश्य से RSS की स्थापना कराई थी जो आज आर्यसमाज को ही नियंत्रित करता प्रतीत होता है।

तो आइये सबसे पहले आर एस एस क्यों बनवाया गया इसे जानें फिर समझें कि ‘साम्यवाद है ही भारतीय अवधारणा’। ‘महाभारत काल’के बाद भारत का सांस्कृतिक पतन तीव्र गति से हुआ और आंतरिक फूट के कारण यह विदेशियों का गुलाम बना । विदेशी सत्ता ने यहाँ के तत्कालीन विद्वानों को अपनी ओर मिलाकर ऐतिहासिक संदर्भों को संदेहास्पद बनाने हेतु ‘पुराणों’ की रचना करवाई। आम जनता ने इन विद्वानों से गुमराह होकर पुराणों को धार्मिक ग्रंथ मान लिया और आज तक वही विभ्रम पूजा जा रहा है। हमारे साम्यवादी विद्वान भी इन ग्रन्थों को ही धार्मिक ग्रंथ की संज्ञा देते हैं जो उनकी ज़िद्द और जड़ता का प्रतीक है।हवाला तो ये मार्क्स का देते हैं किन्तु ये सब महर्षि कार्ल मार्क्स के पैर के अंगूठे के नाखून की नोक के बराबर भी नहीं ठहरते ज्ञान के मामले मे।

सर्वप्रथम बौद्धों पर अत्याचार करने वाले लोगों यथा उनके मठों को उजाड़ने,विहारों और उनके ग्रन्थों को जलाने वाले लोगों को ‘हिंसा देने’ के कारण ‘हिन्दू’ की संज्ञा दी गई थी। उसके बाद फारसियों ने एक गंदी और भद्दी गाली के रूप मे यहाँ के लोगों को ‘हिन्दू’ कहा। यहाँ के लोगों ने अपने तत्कालीन पुरोहितो,पुजारियों और विदेशी सत्ता के लालच मे फंसे विद्वानों की बातों को सिर -माथे पर लिया और खुद को ‘हिन्दू’ कहलाने लगे।

अब चूंकि ईस्ट इंडिया कंपनी ने सत्ता ‘मुस्लिम शासकों’ से छीनी थी इसलिए उसने इन हिंदुओं को बढ़ावा देकर मुसलमानों को कुचला जिससे वे शिक्षा और रोजगार मे पिछड़ गए। कंपनी शासन ने मुस्लिमों और हिंदुओं मे खाई गहराने हेतु ‘बाबरी मस्जिद’ प्रकरण खड़ा कराया।

ब्रिटिश अत्याचारों और शोषण से त्रस्त होकर मुगल शासक ‘बहादुर शाह जफर’ के नेतृत्व मे 1857 मे तथाकथित हिंदुओं और मुसलमानों ने मिल कर क्रांति कर दी जो आंतरिक फूट के कारण निर्ममता से कुचल दी गई। पंजाब के सिखों,ग्वालियर के सिंधिया,भोपाल की बेगम,नेपाल के राणा ने ‘आज़ादी की प्रथम क्रान्ति’को कुचलने मे अंग्रेजों का भरपूर साथ दिया और बहादुर शाह जफर को मांडले मे कैद करके भारत से निर्वासित कर दिया गया। इस क्रांति के बाद मुसलमानों का और भी दमन किया गया क्योंकि मुगल शासक ने इसका नेतृत्व किया था।

अपनी युवावस्था मे महर्षि दयानंद ‘सरस्वती’ने भी इस क्रांति मे भाग लिया था और रानी लक्ष्मी बाई से भी उनका संपर्क था। ‘क्रांति’ के दमन की क्रूरता को देख कर दयानन्द ने ईस्वी सन 1875 की चैत्र प्रतिपदा को (क्रांति के 18 वर्ष बाद),’आर्यसमाज’का गठन किया जिसका उद्देश्य जनता को जागरूक करके देश को आज़ादी दिलाना था। प्रारम्भ मे जितने भी आर्यसमाज स्थापित हुये ब्रिटिश छावनी वाले नगरों मे ही हुये थे। ब्रिटिश सरकार ने उन पर कई मुकदमे भी चलवाये उनको REVOLUTIONARY SAINT कहा गया। महर्षि दयानंद ‘सरस्वती’ ने विदेशियों द्वारा प्रदत्त  ‘हिन्दू’ संज्ञा का प्रबल विरोध किया। उन्होने देशवासियों को ‘सनातन आर्यत्व’ पर लौटने का आहवाहन किया।

दयानन्द के प्रचार से भयभीत होकर ब्रिटिश गवर्नर जनरल ने रिटायर्ड ICS एलेन आकटावियन हयूम की मदद से वोमेश चंद्र बेनर्जी (जो ईसाई थे)की अध्यक्षता मे इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना कारवाई जो सम्पूर्ण आज़ादी नही केवल ‘डोमिनियन स्टेट’ चाहती थी। अतः दयानन्द के निर्देश पर आर्यसमाजी इस कांग्रेस के सदस्य बन गए और उन लोगों के प्रयास से कांग्रेस को ‘सम्पूर्ण’ आज़ादी को ध्येय बनाना पड़ा।डॉ पट्टाभि सीता रमय्या ने ‘कांग्रेस का इतिहास’ मे लिखा है कि स्वतन्त्रता आंदोलन मे भाग लेने वाले सत्याग्रहियों मे 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे।

अतः अब इस कांग्रेस को कमजोर बनाने हेतु मुसलमानों का सहारा लिया गया और ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन के माध्यम से 1906 मे  ‘मुस्लिम लीग’की स्थापना ब्रिटिश सरकार ने करवाई दूसरी ओर ‘मुस्लिम सांप्रदायिकता’ के जवाब मे मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व मे 1920 मे ‘हिन्दू महासभा’ का गठन करवाया गया। अभी तक महर्षि दयानन्द   के बाद भी उनका प्रभाव समाप्त नहीं हुआ था अतः आर्यसमाजियों के प्रभाव से हिंदूमहासभा ‘हिन्दू सांप्रदायिकता’ को उभाड़ने मे विफल रही। लेकिन कांग्रेस मे सांप्रदायिक आधार पर धड़ेबंदी शुरू हो गई। इन परिस्थितियों मे ‘राष्ट्र्वादी कांग्रेसियों’ ने 25/26 दिसंबर 1925 को कानपुर मे कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। स्वामी सहजानन्द ‘सरस्वती’,क्रांतिकारी गेंदा लाल दीक्षित और महा पंडित राहुल सांस्कृत्यायन सरीखे आर्यसमाजियों ने कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत बनाने मे अपना अमित योगदान दिया।

आर्यसमजी और कम्युनिस्ट मिल कर कहीं ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ न फेंके इस लिए पूर्व क्रांतिकारी सावरकर साहब जो खुद को नास्तिक कहते थे के माध्यम से RSS का गठन करवाया गया। शासकों के साथ दुरभि संधि के तहत इस संगठन को नाजी हिटलर के ‘स्टार्म फोर्स’ की भांति रखा गया जिससे जनता को गुमराह किया जा सके क्योंकि हिटलर शुद्ध आर्य होने का दावा करता था और उसका वारिस यह संगठन भारत मे खुद को घोषित करने लगा। इससे यह शक नहीं पैदा हो सका कि इसके पीछे ब्रिटिश सरकार का हाथ है जबकि यह उसी के मंसूबे पूरे करने हेतु ही गठित हुआ था। RSS की जूते से टोपी तक पोशाक और परेड की गतिविधियां जर्मनी के ‘स्टार्म फोर्स’ की तर्ज पर रखी गईं। यह नस्लवादी तौर पर मुस्लिमों के विरुद्ध घृणा फैलाता था । मुस्लिम लीग -RSS के प्रयासों से देश ‘हिन्दू-मुस्लिम दंगों’की आग मे झुलसा दिया गया और अंततः ‘पाकिस्तान’ एवं ‘भारत’ दो देशों मे बाँट दिया गया। यह साम्राज्यवाद के नए मसीहा अमेरिका की नीतियों और योजनाओं का परिणाम था।

पूंजीवाद के समर्थक नेहरू जी ने बड़ी ही चालाकी से रूस से मित्रता करके भारतीय कम्युनिस्टों को प्रभाव हींन कर दिया।  आज कम्युनिस्ट आंदोलन कई पार्टियों मे विभक्त होकर पूरी तरह बिखर गया है। कांग्रेस जहां कमजोर पड़ती है वहाँ RSS समर्थित भाजपा को आगे बढ़ा देती है। दोनों साम्राज्यवादी अमेरिका समर्थक पार्टियां हैं। ऐसे मे साम्यवाद के मजबूत होकर उभरने की आवश्यकता है परंतु सबसे बड़ी बाधा वे ‘साम्यवादी विद्वान और नेता’ खड़ी करते हैं जो आज भी अनावश्यक और निराधार ज़िद्द पर अड़े हुये हैं कि ‘मार्क्स’ ने धर्म को अफीम कह कर विरोध किया है अतः साम्यवाद धर्म विरोधी  है।

‘एकला चलो रे ‘ की नीति पर चलते हुये इस ब्लाग के माध्यम से मैं सतत ‘धर्म’ की वास्तविक व्याख्या बताने का प्रयास करता रहता हूँ जो वस्तुतः ‘नक्कारखाने मे तूती की आवाज़’ की तरह है। फिर भी एक बार और-

धर्म’=जो शरीर को धरण करने के लिए आवश्यक है जैसे-‘सत्य’,’अहिंसा’,’अस्तेय’,’अपरिग्रह’और ‘ब्रह्मचर्य’।
(क्या मार्क्स ने इन सद्गुणों को अफीम बताया है?जी नहीं मार्क्स ने उस समय यूरोप मे प्रचलित ‘ईसाई पाखंडवाद’को अफीम कह कर उसका विरोध किया था। पाखंडवाद चाहे ईसाइयत का हो,इस्लाम का हो या तथाकथित हिन्दुत्व का उन सब का प्रबल विरोध करना ही चाहिए परंतु ‘विकल्प’ भी तो देते चलिये। )

‘भगवान’=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल) का समन्वय।

‘खुदा’=चूंकि ये पाँच तत्व खुद ही बने हैं इन्हे किसी ने बनाया नहीं है इसलिए इन्हे खुदा भी कहते हैं।

GOD=G(जेनेरेट)+O(आपरेट)+D(देसट्राय)। ‘भगवान’ या ‘खुदा’ सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन,पालन और ‘संहार’ भी करते हैं इसलिए इन्हें GOD भी कहा जाता है।

क्या मार्क्स ने प्रकृति के इन पाँच तत्वों को अफीम कहा था?’साम्यवाद’ को संकुचित करने वाले वीर-विद्वान क्या जवाब देंगे?  


देवता=जो देता है और लेता नहीं है जैसे-वृक्ष ,नदी,समुद्र,वायु,अग्नि,आकाश,ग्रह-नक्षत्र आदि न कि कोई व्यक्ति विशेष। क्या मार्क्स ने प्रकृति प्रदत्त इन उपादानों का कहीं भी विरोध किया है?’साम्यवाद’ के नाम पर साम्यवाद का अवमूल्यन करने वाले दिग्गज विद्वान क्या जवाब देंगे?

जनता को सही राह दिखाना किस प्रकार ‘भटकाव’ है?जो भटकाव करते हैं उनको तो धर्म कह कर ये विद्वान सिर पर चढ़ाते हैं और उसी प्रकार मार्क्स को बदनाम करने की कोशिश करते हैं जिस प्रकार साम्राज्यवादियों के पिट्ठू विद्वान राम को बदनाम करने का साहित्य सृजन करते हैं। राम ने नौ लाख वर्ष पूर्व साम्राज्यवादी रावण को परास्त किया और उसका साम्राज्य ध्वस्त किया था। लेकिन साम्यवाद के मसीहा कहलाने वाले ये विद्वान राम-रावण युद्ध को कपोल कल्पना कह कर राम को साम्राज्यवादी RSS का खिलौना बना देते हैं। साम्राज्यवादियों ने दो धाराएँ फैला कर वास्तविकता को ढकने का स्वांग रचा है। पहले कहा गया कि वेद गड़रियों के गीत हैं और खुद ‘मेक्समूलर’ के माध्यम से यहाँ से मूल पांडुलिपियाँ ले गए। अंनुसन्धान किए और वेदों का भरपूर लाभ उठाया। दूसरे RSS,मूल निवासी,आदिवासी,आदि तमाम संगठनों के माध्यम से वेद और आर्यों के विरुद्ध दुष्प्रचार करवाया । कोई हिटलर की तर्ज पर हिन्दुत्व को नस्लवादी आर्य बताता है तो कोई आर्यों को यहाँ के मूल निवासियों का शोषक आक्रांता। दुर्भाग्य यह है कि साम्यवादी विद्वान इनमे से ही किसी न किसी बात को सही मानते हैं और अपना दिमाग लगा कर कुछ सोचना व समझना ही नहीं चाहते हैं। यदि कोई ऐसा प्रयास करता है तो तत्काल उसे प्रतिगामी घोषित कर देते हैं जबकि खुद कार्ल मार्क्स ने ‘साम्यवाद’ को देश-काल-परिस्थितियों के अनुसार लागू करने की बात कही थी। भारत मे कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना होने पर स्टालिन ने भी इसके संस्थापकों से ऐसा ही कहा था। किन्तु इन लोगों ने न तो मार्क्स के सिद्धांतों का पालन किया न ही स्टालिन के सुझाव माने और रूसी पैटर्न की नकल कर डाली। भारतीय वांगमय से मेल न खाने के कारण यहाँ की जनता के बीच साम्राज्यवादियों के सहयोग से यह प्रचारित किया गया कि साम्यवाद विदेशी विचार-धारा है और देश के अनुकूल नहीं है। डॉ राम मनोहर लोहिया और लाल बहादुर शास्त्री सरीखे नेताओं ने इसी आधार पर साम्यवाद को अत्यधिक क्षति पहुंचाई। स्टालिन ने हिटलर से समझौता  कर लिया तो ठीक था लेकिन नेताजी सुभाष बोस ने हिटलर का सहयोग लेकर जापान मे पनाह ली तो उनको ‘तोजो का कुत्ता’ कह कर इन साम्यवादी विद्वानों ने संभोधित किया और अपेक्षा करते हैं कि जनता उनको सहयोग दे । हालांकि अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि नेताजी का विरोध करना तब गलत था।

‘रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना’ के माध्यम से मैंने बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार राम ने रावण के ‘साम्राज्यवाद’ को नष्ट किया था। यदि आज भी साम्यवाद को कामयाब करना है तो राम की नीतियों को अपनाना पड़ेगा ,राम की आलोचना करके या अस्तित्व को नकार के कामयाब न अभी तक हुये हैं न ही आगे भी हो सकेंगे। योगी राज श्री कृष्ण ने तो सर्वाधिकार का बचपन से ही विरोध किया था गावों की संपत्ति का शहरी उपभोग समाप्त करने के लिए उन्होने ‘मटका फोड़’ आंदोलन चलाया था और गावों का मक्खन शहर आने से रोका था। गो-संवर्द्धन पर अनुसंधान करवाया और सफलता प्राप्त की लेकिन ढ़ोंगी गोवर्धन-परिक्रमा के नाम पर इस उपलब्धि पर पलीता लगाते हैं क्योंकि उसी मे साम्राज्यवादियों का हित छिपा हुआ है। किन्तु साम्यवादी क्यों नही ‘सत्य’ को स्वीकार करते हैं? क्यों साम्यवादी विद्वान ढोंगियों के कथन पर ध्यान देते हैं और वास्तविकता से आँखें मूँद लेते हैं। 

अभी तक सभी साम्यवादी विद्वानों ने साम्राज्यवादियों के षड्यंत्र मे फंस कर ‘नकारात्मक’ सोच को सच माना है। किन्तु अब आवश्यकता है कि इस सोच को सकारात्मक बना कर ‘सच’ को स्वीकार करें और सफलता हासिल करें। अन्यथा पूर्व की भांति ‘साम्राज्यवाद को ही मजबूत’ करते रहेंगे। मार्क्स ने जिस GOD का विरोध किया वह पाखंडियों की सोच वाला था वास्तविक नहीं। हमे जनता को बताना चाहिए वास्तविक GOD,खुदा या भगवान प्रकृति के पाँच तव हैं और कुछ नहीं। जनता को धर्म का मर्म बताना पड़ेगा तब ही वह ढोंग-पाखंड-आडंबर से दूर हो पाएगी। कृपया साम्यवाद का चोला ओढ़ कर ‘मार्क्स’ को बदनाम करना और इस प्रकार ‘साम्राज्यवाद को’ मजबूत करना बंद करें।

संसदीय लोकतन्त्र और साम्यवाद

कल 06 अप्रैल – दंतेवाड़ा त्रासदी की वर्षगांठ के अवसर पर हम आज  यह बताना चाहते हैं कि ‘हिंसा’ को छोड़ कर अपने संसदीय लोकतन्त्र के माध्यम से ही हम ‘मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध’ बनाने हेतु प्रयास करके सफल हो सकते हैं। दो वर्ष पूर्व इस त्रासदी पर मैंने समाधान हेतु विचार प्रस्तुत किए थे ,पहले उनमे से कुछ का अवलोकन करें जो इस प्रकार हैं-

दंतेवाडा आदि नक्सली आन्दोलनों का समाधान हो सकता है सर्वप्रथम दोनों और की हिंसा को विराम देना होगा फिर वास्तविक धर्म अथार्त सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रहम्चर्य का वस्तुतः पालन करना होगा.


सत्य-सत्य यह है कि गरीब मजदूर-किसान का शोषण व्यापारी,उद्योगपति,साम्राज्यवादी सब मिलकर कर रहे हैं.यह शोषण अविलम्ब समाप्त किया जाये.
अहिंसा-अहिंसा मनसा,वाचा,कर्मणा होनी चाहिए.शक्तिशाली व सम्रद्द वर्ग तत्काल प्रभाव से गरीब किसान-मजदूर का शोषण और उत्पीडन बंद करें.
अस्तेय-अस्तेय अथार्त चोरी न करना,गरीबों के हकों पर डाका डालना व उन के निमित्त सहयोग –निधियों को चुराया जाना तत्काल  प्रभाव से बंद किया जाये.कर-अप्बंचना समाप्त की जाये.
अपरिग्रह-जमाखोरों,सटोरियों,जुअरियों,हवाला व्यापारियों,पर तत्काल प्रभाव से लगाम कसी जाये और बाज़ार में मूल्यों को उचित स्तर पर आने दिया जाये.कहीं नोटों को बोरों में भर कर रखने कि भी जगह नहीं है तो अधिकांश गरीब जनता भूख से त्राहि त्राहि कर रही है इस विषमता को तत्काल दूर किया जाये.
ब्रह्मचर्य -धन का असमान और अन्यायी वितरण ब्रहाम्चर्य व्यवस्था को खोखला कर रहा हैऔर इंदिरा नगर लखनऊ के कल्याण अपार्टमेन्ट जैसे अनैतिक व्यवहारों को प्रचलित कर रहा है.अतः आर्थिक विषमता को अविलम्ब दूर किया जाये.चूँकि हम देखते हैं कि व्यवहार में धर्मं का कहीं भी पालन नहीं किया जा रहा है इसीलिए तो आन्दोलनों का बोल बाला हो रहा है. दंतेवाडा त्रासदी खेदजनक है किन्तु इसकी प्रेरणा स्त्रोत वह सामाजिक दुर्व्यवस्था है जिसके तहत गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है.कहाँ हैं धर्मं का पालन कराने वाले?पाखंड और ढोंग तो धर्मं नहीं है,बल्कि यह ढोंग और पाखण्ड का ही दुष्परिणाम है  कि शोषण और उत्पीडन की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं.जब क्रिया होगी तो प्रतिक्रिया होगी ही.


शुद्द रहे व्यवहार नहीं,अच्छे आचार नहीं.
इसीलिए तो आज ,सुखी कोई परिवार नहीं.


उत्तर प्रदेश और पंजाब के पिछले विधान सभा चुनावों मे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने बाम-पंथी मोर्चा बना कर चुनाव लड़े थे किन्तु जनता का समर्थन न मिल सका। अब पटना सम्मेलन के बाद यू पी मे सत्तारूढ़ सपा को लेकर तीसरा मोर्चा बनाने का प्रयास भाकपा द्वारा किया जा रहा है। संसदीय लोकतन्त्र मे ऐसे प्रयास ठीक हैं। परंतु बाम-पंथी और साम्यवादी सपनों का देश बनाने मे इन प्रयासों से कुछ भी भला न हो सकेगा,उल्टे साम्यवादी दल एवं बाम-पंथ भी बदनाम होगा जिससे अब तक बचा हुआ है। 

जातिगत,सांप्रदायिक आधार लेकर कारपोरेट जगत के सहारे से सत्तारूढ़ सपा व्यवहारिक सोच मे ‘समाजवादी’ नहीं है। 

न तो सपा डॉ लोहिया के आदर्शों पर ही चल रही है और न ही डॉ लोहिया के विचार साम्यवाद के लिए सहायक हैं जैसा कि सत्यनारायन ठाकुर साहब ने अपने लेखों की श्रंखला मे स्पष्ट किया था। उस पर मैंने यह टिप्पणी दी थी-

“सत्य नारायण ठाकुर साहब ने डा. लोहिया के विचारों के विरोधाभास को उजागर करते हुए तीन कड़ियों में विस्तार से बताया है उस पर ध्यान देने की पर्मावाश्यक्ता है.
वस्तुतः डा.लोहिया ने १९३० में ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’की स्थापना १९२५ में स्थापित भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी’और इसके आंदोलन को विफल करने हेतु की थी.
स्वामी दयानंद के नेतृत्व में ‘आर्य समाज’के माध्यम से देश की आजादी की जो मांग १८७५ में उठी थी उसे दबाने हेतु १८८५ में कांग्रेस की स्थापना रिटायर्ड आयी.सी.एस.श्री ह्यूम द्वारा वोमेश बेनर्जी की अध्यक्षता में हुयी थी जिसमें आर्य समाजियों ने घुस कर आजादी की मांग उठाना शुरू कर दिया था.बाद में कम्यूनिस्ट भी कांग्रेस में घुस कर ही स्वाधीनता आंदोलन चला रहे थे.
१९२० में स्थापित हिन्दू महासभा के विफल रहने पर १९२५ में आर.एस.एस. की स्थापना अंग्रेजों के समर्थन और प्रेरणा से हुयी जिसने आर्य समाज को दयानंद के बाद मुट्ठी में कर लिया तब स्वामी सहजानंद एवं गेंदा लाल दीक्षित सरीखे आर्य समाजी कम्यूनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए थे.
सी.एस. पी की वजह से जनता भ्रमित रही और क्रांतिकारी ही कम्यूनिस्ट हो सके.
डा.लोहिया ने अपनी पुस्तक’इतिहास चक्र’में साफ़ लिखा है ‘साम्यवाद’ और पूंजीवाद’सरीखा कोई भी वाद भारत के लिए उपयोगी नहीं है .
हम कम्यूनिस्ट जनता को यह नहीं समझाते थे -कम्यूनिज्म भारतीय अवधारणा है जिसे मैक्समूलर साहब की मार्फ़त महर्षि मार्क्स ने ग्रहण करके ‘दास केपिटल’लिखा था.हमने धर्म को अधर्मियों के लिए खुला छोड़ दिया और कहते रहे-‘मैन हेज क्रियेटेड गाड फार हिज मेंटल सिक्यूरिटी आनली’.हम जनता को यह नहीं समझा सके -जो शरीर को धारण करे वह धर्म है.नतीजा यह रहा जनता को भटका कर धर्म के नाम पर शोषण को मजबूत किया गया. डा.लोहिया भी रामायण मेला आदि शुरू कराकर जनता को जागृत करने के मार्ग में बाधक रहे.

आज यदि हम धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करके जनता को स्वामी दयानद,विवेकानंद,कबीर और कुछ हद तक गौतम बुद्ध का भी सहारा लेकर समझा सकें तो मार्क्सवाद को भारत में सफल कर सकते हैं जो यहीं सफल हो सकता है.यूरोपीय दर्शन जो रूस में लागू हुआ विफल हो चुका है.केवल और केवल भारतीय दर्शन ही मार्क्सवाद को उर्वर भूमि प्रदान करता है,यदि हम उसका लाभ उठा सकें तो जनता को राहत मिल सके.व्यक्तिगत स्तर पर मैं अपने ‘क्रांतिस्वर’ के  माध्यम से ऐसा ही कर रहा हूँ.परन्तु यदि सांगठनिक-तौर पर  किया जा सके तभी सफलता मिल सकती है।” 


हमारे कामरेड्स के बीच यह बड़ी गलतफहमी है कि धर्म कम्यूनिज़्म का विरोधी है। चूंकि वे पोंगा-पंथियों के प्रलाप को ही धर्म मानते हैं इसलिए ऐसा सोचते हैं। बात-बात मे चीन का उदाहरण देने वाले हमारे कामरेड्स बंधु इस समाचार पर गौर करके अमल करें तो लाभान्वित हो सकते हैं-

हिंदुस्तान,आगरा,23 फरवरी,2007

इसी ब्लाग के माध्यम से व्यक्तिगत-स्तर पर मै तो  ‘धर्म’ की वास्तविक व्याख्या बार-बार समझाने का प्रयास करता रहूँगा तथा ढोंग-पाखंड का प्रबल विरोध करता रहूँगा किन्तु दुख और खेद के साथ कहना चाहता हूँ कि हमारे कामरेड साथी ही जो धर्म को सिरे से ही खारिज करते हैं अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन मे धर्म के नाम पर प्रदूषित पोंगा-पंथ का खूब अनुसरण करते है-मंदिर,मस्जिद और मजारों,चर्च और गुरुद्वारों  तक जाते हैं। जबकि मै केवल वैज्ञानिक ‘हवन’ ही करता हूँ और किसी भी प्रकार के  ढ़ोंगी स्थानो  पर जाने से परहेज करता हूँ। 


भारत मे लोकतान्त्रिक रूप से साम्यवादी -सत्ता स्थापित करने हेतु जनता को वास्तविक -वैज्ञानिक ‘धर्म’ से परिचय कराना ही होगा -आज नहीं तो कल। अन्यथा तीसरे-चौथे मोर्चे के नाम पर फिर वही लुटेरे राज करते रहेंगे।सी पी आई और सी पी एम के विलय के प्रयास भी हो रहे हैं केवल इतने मात्र से साम्यवादी विचार -धारा को ‘हिन्दी क्षेत्र’ मे समर्थन नहीं हासिल हो सकेगा। डॉ राम मनोहर लोहिया,राजर्षि पुरुषोत्तम दास  टंडन,सरदार पटेल,लाल बहादुर शास्त्री जी,चौ.चरण सिंह  आदि ऐसे ख्याति प्राप्त राष्ट्रीय नेता रहे हैं जिनहोने बड़े ही सुनियोजित ढंग से हिन्दी क्षेत्र मे साम्यवादी आंदोलन को कुचला और दबाया था। जब हम हिन्दी क्षेत्र मे साम्यवादी आंदोलन की पुनः प्रतिष्ठा करने का प्रयास करेंगे तो हमे जनता को यह भी समझाना पड़ेगा कि इन प्रसिद्ध नेताओ ने ‘धर्म की गलत व्याख्या’ को समर्थन देने के कारण साम्यवाद का विरोध किया था। ऐसा करने से ही हम जनता का समर्थन सत्ता हेतु प्राप्त कर सकेंगे। अन्यथा जनता अपनी मूलभूत समस्याओ का निराकरण साम्यवादियों से कराती रहेगी और चुनावो मे वोट जातीय और धार्मिक आधार पर देती रहेगी। आखिर क्या वजह है कि हम जनता को ‘धर्म’ के वास्तविक अर्थ समझा कर उसका ठोस समर्थन हासिल नहीं कर सकते?

स्वेतलाना स्टालिन और साम्यवाद

Hindustan-01/12/2011
कालाकांकर राजघराने के राजा बृजेश सिंह मेहनतकश जनता के हितैषी थे और इसीलिए वह सब कुछ त्याग कर कम्यूनिस्ट बने थे। कैसरबाग ,लखनऊ स्थित अपनी निजी संपत्ति उन्होने भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी को दान कर दी थी और उत्तर-प्रदेश भाकपा का कार्यालय आज भी वहाँ है। ऐसे कामरेड बृजेश सिंह ने रूस प्रवास के दौरान वहाँ के शासक रहे जोसफ स्टालिन की छोटी पुत्री ‘स्वेतलाना’ से विवाह किया था। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी स्वेतलाना भारत आई और यहाँ से अमेरिका वाया स्विट्जरलैंड चली गई तथा वहीं उनका 85 वर्ष की आयु मे गुमनामी मे निधन हो गया। जिस प्रकार डॉ हरगोविंद खुराना के निधन का समाचार देर से आया था उसी प्रकार स्वेतलाना के निधन का समाचार भी बहुत देर से ही आया। स्वेतलाना अपने पिता की ‘तानाशाहीपूर्ण’ नीतियों की घोर विरोधी थीं। इसी कारण उन्हें रूस छोडना पड़ा था। एक भारतीय कम्यूनिस्ट नेता की पत्नी और रूसी तानाशाह (अपने पिता की विरोधी) स्वेतलाना का निधन एक ऐसे समय मे हुआ है जब पूंजीवादी अमेरिका आर्थिक संकट से जूझ रहा है और उसे उबारने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ‘वालमार्ट’ सरीखी कंपनियों के लिए भारतीय बाजार खोल रहे हैं। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी ने उत्तर प्रदेश मे तीन दूसरे बामपंथी दलों से मिल कर एक मोर्चा बनाया है और उसके तहत आगामी विधान सभा चुनाव 2012 मे लड़ने का निर्णय लिया है। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी,उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव डा. गिरीश ने एक वक्तव्य जारी कर  कहा है  कि ,”चूंकि इस समय पूंजीवादी दल अपनी कारगुजारियों के चलते पूरी तरह बेनकाब हो गये हैं, अतएव उत्तर प्रदेश की जनता एक साफ सुथरे नये विकल्प की तलाश में है। एक हद तक इस कमी को वामपंथी दल पूरा कर सकते हैं जो आम जनता की समस्याओं पर लगातार संघर्ष करते रहे हैं, भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त हैं और उनके पास संगठन का एक ठीक-ठाक ताना-बाना पूरे प्रदेश में मौजूद हैं। इस उद्देश्य से भाकपा, माकपा, फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी पहले ही एकजुट हो चुके हैं और अब दूसरे वाम समूहों का आह्वान किया गया है कि ऐतिहासिक इस घड़ी में मोर्चे के साथ आयें। कुछ धर्मनिरपेक्ष और भ्रष्टाचार से मुक्त छोटे दलों को भी साथ लेने पर विचार किया जा रहा है।”


भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन को सबसे अधिक नुकसान डॉ राम मनोहर लोहिया के राजनीतिक दर्शन से हुआ है ,इस संबंध मे जून 2011 मे सत्य नारायण ठाकुर साहब ने डा. लोहिया के विचारों के विरोधाभास को उजागर करते हुए तीन कड़ियों में विस्तार से बताया है उस पर ध्यान देने की पर्मावाश्यक्ता है.साथ ही साथ निम्न-लिखित तथ्यों पर भी यदि ध्यान दिया जाये तो भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन को लाभ हो सकता है-




वस्तुतः डा.लोहिया ने १९३० में ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’की स्थापना १९२५ में स्थापित भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी’और इसके आंदोलन को विफल करने हेतु की थी.


स्वामी दयानंद के नेतृत्व में ‘आर्य समाज’के माध्यम से देश की आजादी की जो मांग १८७५ में उठी थी उसे दबाने हेतु १८८५ में कांग्रेस की स्थापना रिटायर्ड आई .सी.एस.श्री ह्यूम द्वारा वोमेश बेनर्जी की अध्यक्षता में हुयी थी जिसमें आर्य समाजियों ने घुस कर आजादी की मांग उठाना शुरू कर दिया था.बाद में कम्यूनिस्ट भी कांग्रेस में घुस कर ही स्वाधीनता आंदोलन चला रहे थे.


१९२० में स्थापित हिन्दू महासभा के विफल रहने पर १९२५ में आर.एस.एस. की स्थापना अंग्रेजों के समर्थन और प्रेरणा से हुयी जिसने आर्य समाज को दयानंद के बाद मुट्ठी में कर लिया तब स्वामी सहजानंद एवं गेंदा लाल दीक्षित सरीखे आर्य समाजी कम्यूनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए थे.
सी.एस. पी की वजह से जनता भ्रमित रही और क्रांतिकारी ही कम्यूनिस्ट हो सके.


डा.लोहिया ने अपनी पुस्तक’इतिहास चक्र’में साफ़ लिखा है ‘साम्यवाद’ और पूंजीवाद’सरीखा कोई भी वाद भारत के लिए उपयोगी नहीं है .
हम कम्यूनिस्ट जनता को यह नहीं समझाते थे -कम्यूनिज्म भारतीय अवधारणा है जिसे मैक्समूलर साहब की मार्फ़त महर्षि मार्क्स ने ग्रहण करके ‘दास केपिटल’लिखा था.हमने धर्म को अधर्मियों के लिए खुला छोड़ दिया और कहते रहे-‘मैन हेज क्रियेटेड गाड फार हिज मेंटल सिक्यूरिटी आनली’.हम जनता को यह नहीं समझा सके -जो शरीर को धारण करे वह धर्म है.नतीजा यह रहा जनता को भटका कर धर्म के नाम पर शोषण को मजबूत किया गया. डा.लोहिया भी रामायण मेला आदि शुरू कराकर जनता को जागृत करने के मार्ग में बाधक रहे.

आज यदि हम धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करके जनता को स्वामी दयानद,विवेकानंद,कबीर और कुछ हद तक गौतम बुद्ध का भी सहारा लेकर समझा सकें तो मार्क्सवाद को भारत में सफल कर सकते हैं जो यहीं सफल हो सकता है.यूरोपीय दर्शन जो रूस में लागू हुआ विफल हो चुका है.केवल और केवल भारतीय दर्शन ही मार्क्सवाद को उर्वर भूमि प्रदान करता है,यदि हम उसका लाभ उठा सकें तो जनता को राहत मिल सके.व्यक्तिगत स्तर पर मैं अपने ‘क्रान्ति स्वर ‘के माध्यम से ऐसा ही कर रहा हूँ.परन्तु यदि सांगठनिक-तौर पर किया जाए तो सफलता सहज है.

भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन के एक बड़े संगठनकर्ता कामरेड बृजेश सिंह की पत्नी स्वेतलाना के निधन के बाद अब तो यह स्वीकार कर ही लिया जाना चाहिए कि,रूस मे जिस तरीके से साम्यवाद को लागू किया गया था वह गलत था तभी स्टालिन की पुत्री स्वेतलाना को ही विद्रोह करना पड़ा था और इसी कारण रूस मे साम्यवाद विफल हो गया था। साम्यवाद जो मूलतः भारतीय अवधारणा है भारतीय संदर्भों से ही भारत मे प्रसार पा सकेगा। जो लोग आज भी संकीर्ण(दक़ियानूसी) सिद्धांतों पर कम्यूनिस्ट आंदोलन को चलाने की जिद्द करते हैं वे वास्तव मे ‘साम्यवाद’ के हितैषी नहीं हैं और न ही भारत मे साम्यवाद को सफल होते देखना चाहते हैं चाहे संगठन मे वे कितने ही प्रभावशाली पदों पर क्यों न आसीन हों।