आचार्य विश्व देव जी आर्य जगत के महान विद्वानों में से एक थे और संस्कृत भाषा के बड़े व्याकरणा चार्य भी थे.उन्होंने एक बार बताया था कि कमला नगर (आगरा)की एक वाल्मीकि बस्ती में पूर्णमासी के हवन उपरान्त प्रवचन में एक वृद्ध महाशय ने उन से प्रश्न उठा दिया कि वाल्मीकी समुदाय को भंगी क्यों कहा जाता था ?भले ही सरकार ने इसे अब प्रतिबंधित कर दिया है परन्तु इस शब्द के मतलब क्या है?उन सज्जन ने यह भी बताया कि ‘मेहतर’शब्द फारसी का है जो इंग्लिश के BEST के सन्दर्भ में है .आचार्य विश्व देव जी ‘भंगी’शब्द की व्याख्या व्याकरण के आधार पर करने में जब विफल हो गए तो उन्हीं सज्जन से निवेदन किया कि आप ही जानते हों तो समस्या समाधान करें और उन्होंने जो व्याख्या ‘भंगी’शब्द की बताई उससे विश्व देव जी ने भी अपनी सहमती जता दी.उन्होंने बताया-
भंगी =भंग+ई =भंग करने वाला अर्थात वे लोग जो चार प्रकार की मर्यादाओं में से एक भी भंग करें ‘भंगी’ कहे जाते थे न की सफाई करने वाले.वे चार मर्यादाएं यह हैं:-
१.व्यक्तिगत मर्यादा.
२.पारिवारिक मर्यादा.
३.सामजिक मर्यादाऔर
४.राष्ट्रीय /राजनीतिक मर्यादा.
शामली(मुजफ्फर नगर)के प्रवचन का एक और दृष्टांत आचार्य विश्व देव जी ने बताया कि वहां प्रवचन के बीच में उन्होंने श्रोता जनता से पूंछ लिया कि आप लोग समझ पा रहे हैं या नहीं?एक वृद्ध सज्जन ने जवाब दे दिया-“समझे सें तू भौंके जा”.एक बार तो विश्वदेव जी इस जवाब से सकपका गये लेकिन प्रवचन जारी रखा.उन्होंने बताया कि प्रवचन समाप्त होने के थोड़े से अंतराल पर वही सज्जन एक लीटर दूध लेकर विश्वदेव जी को पिलाने पहुंचे यह कहते हुए “तू बहुत थक गया है ले यह दूध पी जा” विश्वदेव जी के यह कहने पर एक गिलास तो पी सकता हूँ सब नहीं तो वह बोले “तू पिएगा नहीं तो मैं तेरे ऊपर ड़ाल दूंगा” अवसरानुकूल भी भाषा को समझना पड़ता है.परन्तु यहाँ ब्लाग जगत में तो सभी सभ्य एवं विद्वान हैं फिर क्यों गलत भाषा बोल कर अहंकार प्रदर्शन करते हैं?
गणेश स्तुति में एक शब्द ‘सर्वोपद्रव नाशनम’ आता है अब इसे अगर ज्यों का त्यों पढेंगे तो मतलब निकलेगा -समस्त धन का नाश कर दो.क्या प्रार्थी यही कामना करता है?कदापि नहीं.इस शब्द को पढने के लिए संधि-विच्छेद तथा समास का सहारा लेना होगा.अर्थात -सर्व +उपद्रव +नाशनम =समस्त उपद्रवों का नाश करें जो प्रार्थी वस्तुतः कह रहा है.
इसी प्रकार शिव स्तुति के शब्द ‘चन्द्र शेखर माश्रय’ को यों पढना होगा-चन्द्र शेखरम +आश्रय =चन्द्र शेखर(शिव)के आश्रय में हूँ.
दुर्गा सप्तशती में कुंजिका-स्त्रोत के अंतर्गत एक शब्द ‘चाभयदा’ लिखा मिलेगा जिसे अगर यों ही पढेंगे तो मतलब होगा -और भय दो.क्या भय प्राप्ति की कोई कामना करेगा? नहीं.अतः इस शब्द को भी सन्धि-विच्छेद एवं समास के सहारे से ही समझा जा सकता है.अर्थात च +अभय दा =और अभय दो -यही प्रार्थना का अभीष्ट है.
पं.नारायण दत्त श्रीमाली ने भी ऐसे ही कुछ बीज मन्त्रों की सम्यक व्याख्या प्रस्तुत की है.आपकी सहूलियत के लिए यहाँ कुछ नमूने के तौर पर दे रहे हैं.:-
१.क्रीं=क +र +ईकार +अनुस्वार क=काली,र =ब्रह्म,ईकार =महामाया,अनुस्वार=दुःख हरण .
२.श्रीं =श +र +ई +अनुस्वार श=महालक्ष्मी ,र =धन-ऐश्वर्य ,ई =तुष्टि,अनुस्वार =दुःख हरण
३.ह्रौं =ह्र+औ+अनुस्वार ह्र =शिव,औ =सदा शिव ,अनुस्वार =दुःख हरण
४.दूं =द +ऊ +अनुस्वार द =दुर्गा,ऊ=रक्षा,अनुस्वार=करना
(श्री अशोक कौशिक द्वारा उपलब्ध सूचना के अनुसार)
१९२० के गांधी जी के आन्दोलन से स्थापित हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने हेतु आर.एस.एस. की स्थापना कराई गयी थी.इटली के विचारक ‘माजनी’ की पुस्तक “न्यू इटली “के बहुत सारे तर्क सावरकर की किताब “हिंदुत्व” में मौजूद हैं.१९२० में सावरकर को माफी देते वक्त ब्रिटिश शासकों ने उनसे यह अन्डरटेकिंग लिखवा ली थी कि माफी के बाद वह ब्रिटिश इम्पायर के हित में ही काम करेंगे.डॉ.हेडगेवार ने सावरकर से प्रेरित होकर ही आर.एस.एस.की स्थापना १९२५ में कीथी.माधव राव सदा शिव गोलवालकर की नागपुर के ‘भारत पब्लिकेशन्स’से प्रकाशित किताब “वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड”के १९३९ संस्करण के प्र.३७ पर लिखा है -हिटलर एक महान व्यक्ति है और उसके काम से हिन्दुस्तान को बहुत कुच्छ सीखना चाहिए.
यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि हिटलर ने यहूदियों का सफाया कर दिया था और गोलवालकर जी का इशारा हिंदुस्तान में मुस्लिमों की और था.गुलामी के दौरान साम्प्रदायिक दंगे मुस्लिम लीग और आर.एस.एस. के साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने वाले कृत्य थे जिनका परिणाम भारत-विभाजन के रूप में सामने है.
आजादी के इतने लम्बे अरसे बाद भी ये साम्प्रदायिक शक्तियां देश को कमजोर करने का कुचक्र करती रहती हैं-ब्लाग जगत में भी ये तोड़-फोड़ करते रहते हैं.”मैं हूँ……मैं हूँ……मैं हूँ……” जैसे अहंकारी उद्घोष करते हुए ये तत्व गलत बातों को ऊपर रखते हुये सत्य पर प्रहार करते हैं.ये आज भी गुलाम मानसिकता में ही जी रहे हैं.
फिर भी अगर हमारे ब्लाग जगत के प्रबुद्ध विचारक जन-जाग्रति को अपने लेखन का आधार बना लें तो कोई कारण नहीं कि देश से ढोंग-पाखण्ड को उखाड़ कर अपनी अर्वाचीन संस्कृति को पुनर्स्थापित करने में देर नहीं लगेगी.कलकत्ता के गजानंद आर्य जी सही फरमाते हैं.:-